‘भारत रत्न’ में भी राजनीति
पिछले दिनों भाजपा के शिखर नेता और विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ देने की मांग की है। इसका अनुसरण करते हुए उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक स्व. कांशीराम को भी भारत रत्न देने की मांग करदी।
भला कम्यूनिस्ट पीछे क्यों रहते सो उन्होंने भी पश्चिम बंगाल में दो दशकों तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु के लिये इस अवार्ड की मांग कर दी। इसी क्रम में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. करूणानिधि और फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार भी जुड़ गये। आने वाले समय में न जाने और कितने नाम जुड़ने वाले हैं।
आज भारत का राजनीतिक परिदृश्य इतना बदल चुका है कि देश का सर्वोच्च सम्मान भी राजनीति के कालचक्र से नहीं बच पा रहा है। ये काफी गंभीर मामला है। देश की सेवा के लिये दिये जाने वाले सम्मानों और पुरस्कारों पर आज तक ऐसी परिस्थिति कभी नहीं बनी। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में नेताओं की राजनीति करने का स्तर कितना गिरता जा रहा है, इससे सहज ही आंका जा सकता है।
ये सम्मान किसे दिया जाय किसे नहीं,इसका फैसला भारत रत्न सम्मान समिति पर छोड़ देना चाहिए। वो इसका फैसला खुद करने में सक्षम हैं। आडवाणी ने अगर ये मांग की है तो विपक्ष के नेता होने के नाते यह कुछ हद तक जायज है। लेकिन राजनेताओं को इसमें अपनी-अपनी मांग रखने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।
जब भी कोई ‘अवार्ड या सम्मान’ किसी विवाद से होकर गुजरता है तो कहीं न कहीं इस पर सम्मान पाने वाले को और देश की जनता पर एक तरह का असंतोष साफ झलकता है। इसका सीधा प्रभाव सम्मान की महत्ता पर पड़ता है। क्या नेता इस भावना को नहीं समझते या फिर समझना नहीं चाहते हैं। क्या अब वो भी समय आ गया कि हमें सब कुछ नेताओं की मर्जी के अनुसार ही फैसले लेने होंगे। अगर राजनेताओं का हस्तक्षेप बढ़ता चला जायेगा तो यह स्थिति देश और यहां की जनता के लिये दुर्भाग्यपूर्ण साबित होगा। अब देश की जनता ही आज के नेताओं को नैतिकता का पाठ पढ़ा सकती है ताकि समय-समय पर हर विषय को राजनीति में न घसीटा जा सके।
Wednesday, January 16, 2008
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